भागवत एवं शैव धर्म : महत्त्वपूर्ण तथ्य
भागवत धर्म –
इस धर्म का उद्भव मौर्योत्तर काल में हुआ। इस धर्म के विषय में प्रारंभिक जानकारी उपनिषदों में मिलती है।
इस धर्म के संस्थापक वासुदेव कृष्ण थे जो वृष्णि वंशीय यादव कुल के नेता थे।
वासुदेव की पूजा का सर्वप्रथम उल्लेख भक्ति के रूप में पाणिनि के समय ई. पू. 5वी. शता. में मिलता है।
छान्दोग्य उपनिषद में श्री कृष्ण का उल्लेख सर्वप्रथम मिलता है। उसमें कृष्ण को देवकी पुत्र व ऋषि घोरा अंगिरस का शिष्य बताया गया है।
ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकाण्ड एवं यज्ञीय व्यवस्था के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप उदय होने वाला पहला सम्प्रदाय भागवत सम्प्रदाय था।
वासुदेव कृष्ण को वैदिक देव विष्णु का अवतार माना गया है। बाद में इनका समीकरण नारायण से किया गया। नारायण के उपासक पांचरात्रिक कहलाए।
भागवत धर्म सूर्य पूजा से संबंधित था।
भागवत धर्म का सिद्धांत भगवदगीता में निहित है।
वासुदेव – कृष्ण सम्प्रदाय सांख्य योग से संबंधित था। इसमें वेदांत, सांख्य तथा योग की विचारधाराओं के दार्शनिक तत्वों को मिलाया गया है।
जैन धर्म ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र में वासुदेव जिन्हें केशव नाम से भी पुकारा गया है को 22 वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का समकालीन बताया गया है।
भागवत सम्प्रदाय के मुख्य तत्व हैं – भक्ति एवं अहिंसा।
भगवतगीता में प्रतिपादित अवतार सिद्धांत भागवत धर्म की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।
प्रतिहारों के शासक मिहिर भोज ने विष्णु को निर्गुण तथा सगुण दोनों रूपों में माना है तथा विष्णु को ऋषिकेश कहा है।
केरल का संत राजा कुलशेखर विष्णु का भक्त था।
वामन की उपासना अलवारों में चिरकाल तक होती रही। वे वाराह की भी उपासना करते थे।
भागवत सम्प्रदाय के नायकों का विवरण वायु पुराण में निम्नलिखित उपास्यों के रूप में मिलता है।
ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में किया गया है।
भगवान विष्णु को अपना इष्टदेव मानने वाले भक्त वैष्णव कहलाए तथा तत्संबंधी धर्म वैष्णव धर्म कहलाया। भागवत से वैष्णव धर्म की स्थापना विकास के क्रम की एक धारा है। वैष्णव धर्म नाम का प्रचलन 5 वी. शता. ई. पू. के मध्य हुआ।
विष्णु के अधिकतम अवतारों की संख्या 24 है पर मत्स्यपुराण में 10 अवतारों का उल्लेख मिलता है। इन अवतारों में कृष्ण का नाम नहीं है,क्योंकि कृष्ण स्वयं भगवान के साक्षात् स्वरूप हैं। प्रमुख 10 अवतार निम्न हैं –
मत्स्य, कूर्म (कच्छप ), वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध तथा कल्कि (कलि)।
विष्णु के अवतारों में वराह – अवतार सर्वाधिक लोकप्रिय था। वराह का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में है।
नारायण, सिंह एवं वामन दैवीय अवतार माने जाते हैं तथा शेष सात मानवीय अवतार।
अवतारवाद का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख भगवदगीता में मिलता है।
परंपरानुसार शूरसेन जनपद के अंधक, वृष्णि संघ में कृष्ण का जन्म हुआ था तथा वे अंधक, वृष्णि संघ के प्रमुख भी थे।कालांतर में 5 वृष्णि नायकों (वीरों), संकर्षण (बलदेव), वासुदेव कृष्ण, साम्ब, अनिरुद्ध की पूजा की जाती थी।
वासुदेव कृष्ण सहित चार वृष्णि वीरों की पूजा की चतुर्व्यूह के रूप में कल्पना की गई है।
चतुर्व्यूह पूजा का सर्वप्रथम उल्लेख विष्णु संहिता में मिलता है।
चतुर्व्यूह के चार प्रमुख देवता-
संकर्षण
कृष्ण
अनिरुद्ध
सांब
मेगस्थनीज ने कृष्ण को हेराक्लीज कहा है।
दक्षिण भारत में भागवत धर्म के उपासक अलवार कहे जाते थे। अलवार अनुयायियों की विष्णु या फिर नारायण के प्रति अपूर्व निष्ठा तथा आस्था थी।
वैष्णव धर्म का गढ दक्षिण भारत में तमिल प्रदेश में था। 9 वी. तथा 10वी. शता. का अंतिम चरण अलवारों के धार्मिक पुनरुत्थान का उत्कर्ष काल था। इन भक्ति आंदोलनों में तिरुमंगाई, पेरिय अलवार, स्री संत अण्डाल तथा नाम्मालवार के नाम विशेष हैं। नारायण का प्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।
वैष्णव धर्म के सिद्धांत तथा शाखाएँ-
वैष्णव संप्रदाय-
इस सिद्धांत का उदय 12 वी. शताब्दी में हुआ तथा इसका मत विशिष्टाद्वैत है। इसके आचार्य रामानुज थे।
ब्रह्म सम्प्रदाय-
इसका उदय 13 वी. शताब्दी में हुआ तथा इसका मत द्वैतवाद है, जो माध्वाचार्य ने दिया था। माध्वाचार्य को आनन्दतीर्थ भी कहा जाता है।
रूद्र सम्प्रदाय-
इसका उदय 13 वी. शता. में हुआ तथा इस सिद्धांत का मत शुद्धाद्वैत हैं जो विष्णु स्वामी/ वल्लभाचार्य ने दिया था।
सनक सम्प्रदाय-
इस सिद्धांत का जन्म 13 वी. शता. में हुआ। इसके आचार्य निम्बार्क थे जिन्होंने द्वैताद्वैत का मत दिया।
शैव धर्म-
शिव भक्ति के विषय में प्रारंभिक जानकारी सिंधुघाटी से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में शिव से साम्य रखने वाले देवता को रुद्र कहा गया है। महाभारत में शिव का उल्लेख एक श्रेष्ठ देवता के रूप में हुआ है। मेगस्थनीज ने ई. पू. 4 शता. में शैवमत का उल्लेख किया है।
दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रचार नयनार या आडियार संतों द्वारा किया गया, ये संस्था में 63 थे। इनके श्लोकों के संग्रह को तिरुमुडै कहा जाता है। जिसका संकलन नम्बि – अण्डाल – नम्बि ने किया।
इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया। इस मत के प्रमुख सैद्धांतिक ग्रंथ पाशुपतसूत्र हैं।
शैव सम्प्रदायों का प्रथम उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में शिव भागवत नाम से हुआ।
शैव धर्म ( एक सम्प्रदाय के रूप में ) का प्रारंभ शुंग – सातवाहन काल से हुआ। जो गुप्त काल में चरम सीमा तक पहुँच गया था।
अर्द्धनारीश्वर तथा त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु , महेश शिव ) की पूजा गुप्त काल में आरंभ हुई। समन्वय की यह उदार भावना गुप्त काल की विशेषता है।
अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति शिव तथा पार्वती के परस्पर तादात्म्य पर आधारित थी। ऐसी पहली मूर्ति का निर्माण गुप्तकाल में हुआ।
लिंग पूजा का प्रथम स्पष्ट उल्लेख मत्स्य पुराण में हुआ है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी लिंगोपासना का उल्लेख है।
हरिहर के रूप में शिव की विष्णु के रूप में सर्वप्रथम मूर्तियां गुप्त काल में बनायी गई।
शिव की प्राचीनतम मूर्ति गुडीमल्लम लिंग रेनगुंटा से मिली है।
कौषितकी तथा शतपथ ब्राह्मण में शिव के 8 रूपों का उल्लेख है – चार संहारक के रूप में तथा चार सौम्य रूप में ।
शैव सम्प्रदायों का प्रथम उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में शिव भागवत नाम से हुआ।
कश्मीरी शैव शुद्ध रूप से दार्शनिक तथा ज्ञानमार्गी था । इसके कापालिकों के घृणित क्रिया कलापों की निन्दा की गई है। वसुगुप्त इसके संस्थापक थे। शिव को उन्होंने अद्वैत कहा है।
वामन पुराण में शैव सम्प्रदाय की संख्या चार बतायी गई है जो निम्न लिखित हैं-
शैव
पाशुपत
कापालिक
कालामुख
शैव सम्प्रदाय-
इस सम्प्रदाय के अनुसार कर्त्ता शिव हैं, कारण शक्ति तथा उपादान बिंदु हैं।
इस मत के चार पाद या पाश (बंधन) हैं- विद्या, क्रिया, यौग तथा चर्या।
तीन पदार्थ हैं – पति, पशु, पाश।
2. पाशुपत सम्प्रदाय-
यह सम्प्रदाय शैव मत का सबसे पुराना सम्प्रदाय है। इसके संस्थापक लकुलीश या नकुलीश थे, जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है।
इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया है। इस मत के प्रमुख सैद्धांतिक ग्रंथ पाशुपत सूत्र हैं।
पाशुपत सम्प्रदाय का गुप्त काल में अत्यधिक विकास हुआ। इसके सिद्धांत के तीन अंग हैं- पति(स्वामी), पशु (आत्मा), पाश (बंधन) पशुपति के रूप में शिव की उपासना की जाती थी।
3. कापालिक सम्प्रदाय-
कापालिकों के इष्टदेव भैरव थे। जो शंकर का अवतार माने जाते थे।
यह सम्प्रदाय अत्यंत भयंकर और आसुर प्रवृत्ति का था। इसमें भौरव को सुरा और नरबलि का नौवेद्य चढाया जाता था। इस सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र श्री शैल नामक स्थान था जिसका प्रमाण भवभूति के मालतीमाधव में मिलता है।
4. कालामुख सम्प्रदाय-
इस सम्प्रदाय के अनुयायी कापालिक वर्ग के होते थे, किन्तु वे उनसे भी अधिक अतिवादी तथा प्रकृति वादी थे। शिव पुराण में उन्हें महाब्रतधर कहा गया है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी नर- कपाल में भोजन, जल तथा सुरापान करते थे। शरीर पर भस्म लगाते थे।
लिंगायत सम्प्रदाय-
दक्षिण भारत में (कर्नाटक) भी शैव धर्म का विस्तार हुआ। इस धर्म के उपासक दक्षिण में लिंगायत या जंगम कहे जाते थे।
बसव पुराण में इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक अल्लभप्रभु एवं उनके शिष्य बसव का उल्लेख मिलता है।
Show less